आदमी 

 

संस्मरण

विद्यालय की स्थापना निर्जन स्थान पर गांव से दूर हुई थी, परंतु समय के साथ-साथ गांव और विद्यालय के मध्य की दूरी शून्य हो गई थी। जनसंख्या का निरंतर समृद्ध होना ही इसका प्रमुख कारण था। परंतु फिर भी ग्रामीण क्षेत्र अभी भी शुद्ध एवम शांत हैं। प्रकृति की निकटता ऐसे वातावरण में उद्विग्न चित्त को भी शांत कर जाती है। आपकी काया में जीवन का कितना अंश सक्रिय रहता है, यह बहुत कुछ आपके कार्यक्षेत्र के परिवेश पर निर्भर करता है । एक लंबा समयांतराल  कार्यस्थल पर ही व्यतीत होता है , जिसका गहरा प्रभाव निश्चय ही हमारे तन मन एवं मस्तिष्क पर पड़ता है।

ग्रामीण क्षेत्र में कार्य करते-करते मैंने गांवों के देश भारत को समीप से देखने एवं समझने के कई अवसर प्राप्त किए। भारत की संस्कृति एवं सभ्यता, धर्म के अंदर उठते अंधविश्वासों एवम अज्ञानता से होने वाली हानियां इन सभी से मेंरा आमना सामना होता रहता था ।

आज श्रावण का दूसरा सोमवार था , आकाश में काले और श्वेत मेघ बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे के साथ क्रीडा में व्यस्त थे। कभी अंधेरा तो कभी उजाला , ऐसा प्रतीत होता है , कि लुकाछिपी का यह खेल इन नन्हे मेघों को अति प्रिय था। रूई सा उज्जवल एक शिशुमेघ स्वच्छंद आकाश में बिना किसी भय के वायु के झोंको को पालना बना झूल रहा था । इनकी सौम्यता से यह आभास करना कठिन हो जाता है , कि युवावस्था प्राप्त करते ही यह किस प्रकार रौद्र रूप धारण करते हुए एक दूसरे पर गरजते कड़कते रहते हैं। परंतु यह भी उनका स्वाभाविक कर्म ही है । प्रकृति ने उनके निमित्त यह कठोर, रौद्र रूप इस हेतु प्रदान किया है,  जिससे वह वर्षा का महती भार तथा तीव्र तीखी दामिनी का वेग भी स्वयं में सुरक्षित रख पाए। कितना भी रूप रुद्र क्यों न बना ले या कितने भी कठोर नाद क्यों ना कर लें, यह निवास तो करते हैं कवि की कोमल कल्पनाओं में ही। यह आभास ही नहीं होता कि मल्हार की मधुरता से आकर्षित हो यह यायावर मेघ खींचे चले आते हैं या इनके आगमन के कारण मल्हार और मधुर हो वातावरण को स्निग्ध बना पुनर्जीवित कर देता है।

यही वह क्षण होते हैं जहां संपूर्ण प्रकृति ,जड़ चेतन, चल अचल सभी कुछ नर्तन की मुद्रा धारण कर जीवन की सक्रियता के चरम को अपने पंचतत्व की काया में समेटे उत्तंग उत्साह रूपी हिमालय तक ले जाते हैं। हरीतिमा का ऐसा अनूठा श्रृंगार धरती के रूप को अप्रतिम बना देता है । निश्चय ही देवलोक से नववधू के समान ही परिलक्षित होती होगी हमारी यह मही। वायु अपनी प्रत्येक कोष्ठ में प्राण के अतिरिक्त कुछ और भी रख लाई थी , जिससे वातावरण में एक भिन्न प्रकार का आह्लाद और स्निग्ध समाया हुआ था। सभी कुछ पूर्ण हो गया था , कहीं भी कोई कमी नहीं प्रतीत होती थी । कमी होती भी थी, तो उसका आभास हृदय तक नहीं पहुंच पा रहा था । सभी ने जैसे पूर्णता का ही अनुभव करने की चेष्टा प्रारंभ कर दी हो।

मल्हार की पूर्ण शास्त्रीय संगीत तकनीक हो या कजरी का अर्धशास्त्रीय ज्ञान , सभी हृदय को समान रूप से आकर्षित कर रहे थे , हो भी क्यों न श्रवण नक्षत्र में प्रवेश कर सूर्य ने श्रावण की रचना कर आदियोगी के सम्मान में पूर्णता एवं शिवत्व को समानार्थी जो बना दिया था। शिव , आदिकाल से जीव के जीवन का उद्देश्य जानने को जो भी इच्छुक है, उस का मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। बालपन से ही शिव की मूर्ति के दर्शन मेरे रोम रोम को आनंदित कर जाते थे। शिवालय जाकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे कभी किसी पुरातन काल में भी वहां मेरा आना हुआ होगा , कुछ तो जुड़ाव अवश्य था शिवजी से जो अति प्रसन्नता या अतिविषाद के वेग को उनके पंचाक्षरी मंत्र से ही अवरुद्ध कर पाती थी मैं।

का लेके शिव के मनाई हो शिव मानत नाही …

मेघों और वायु के सम्मिश्रित सुरताल  ने मेरे कवि मन को गायक बना दिया था। बस यूं ही गुनगुनाते कार्यालय में प्रवेश किया तो ज्ञात हुआ कि आज एक वरिष्ठ सहकर्मी का जन्म दिवस है । शुभकामनाएं मंगलकामनाएं प्रेषित हुई।अपने स्थान पर आकर बैठी ही थी , कि अवचेतन हृदय में अपनी वास्तविक उड़ान को प्राप्त कर चैतन्यता डूबने उतराने लगी।

कोरोना कालखंड में सबसे अधिक क्षति शिक्षा व्यवस्था को ही प्राप्त हुई थी। कोरोना के आक्रमण से दिव्यांग हो चुकी शिक्षा , अब नई शिक्षा नीति से बैसाखी प्राप्त करने का प्रयास कर रही थी।

नई शिक्षा नीति के कदम तो जब से पड़े शिक्षा के मंदिर में, तब से आज तक उस बेचारी को हताशा ही प्राप्त हुई है, कितने नवीन आभूषणों से श्रृंगार कर पूर्ण उत्साह से नई नवेली यवनिका डोली में अपने गंतव्य को चली आ रही थी, सहसा , मार्ग में ही अदृश्य विपत्ति के आक्रमण ने कन्हारों को भी उसे छोड़ देश के रक्षार्थ युद्ध में कूदने को विवश कर दिया। अपरिचित मार्ग पर वह अकेली , मानो अनजान से अनंत की ओर बढ़ी जा रही थी।उसके सुख के सारे स्वप्न धूमिल होते जा रहे थे , परंतु काल की यही गणना थी,  सब कुछ जहां था वहीं रुका था , तब तक जब तक इस विदेशी अदृश्य आक्रांता पर विजय प्राप्त न कर ली जा सके।

ऋचा मैम आ जाएं, किसी ने आवाज दी.. साथियों का वार्तालाप उच्च स्वर में था।  अरे !! समोसे नमकीन मठरियां और चाय से सजी पुरानी तख्त जन्मदिन के उत्सव की परंपरा का निर्वहन करती सकुचा सी रही थी। मास्क के दोहरे आवरण को भी चीरती एक भीनी खुशबू मुझे अपनी ओर खींच रही थी । माटी के कुल्हड़ में अदरक, इलायची की सुवास लिए दूध की स्वच्छ भावना को अपना सर्वस्व समर्पित कर चाय की कोमल पत्तियां जीवन को प्राप्त कर चुकी थी , इन सबके बीच चीनी अपने चीनी स्वरूप को कब का विस्मृत कर चुकी हिंद के प्रति निष्ठा को मधुरम बना उस संबंध को और भी गरिमा प्रदान कर रही थी। वायु की शीतलता ने चाय की उष्णता को सम कर दिया था,  अब क्षण था उस दिव्यता को मेरे द्वारा ग्रहण करने का। मेरे आज के व्रत से भिज्ञ होने पर चाय को समोसे व अन्य चटपटी खाद्य सामग्रियों से दूर रखा गया था । अतः वह पूर्ण शुद्ध सात्विक भाव लपेटे मेरे अधरों तक पहुंचने को आकुल थी और मैं भी उसकी व्याकुलता के आवरण में अपने संकोच को गुप्त रख उसके रस को स्वाद इंद्रियों पर चिरस्थाई करने का असंभव प्रयास करने लगी थी।

बिटिया लिओ मठे के आलू संग पुरी कचौड़ी। कपड़े के सिले थैले से दो बर्तन निकाले और परसने लगी बुआ।

अपने मुखर व्यक्तित्व , तीव्र वाणी और बुआ नाम से गांव में पहचानी जाती थी वह, वैसे माया नाम उन्हे उनके परिवारजन से जन्म के समय प्राप्त हुआ था। अधिकतर लोगों के द्वारा बुआ संबोधन ने बुआ नामकरण ही कर दिया था उनका,  जो वह 4 वर्ष की गुटकु से लेकर 50 वर्ष की मैना दादी सभी की बुआ थी ।

बुआ ने मेरे गांव को समझने की प्रेरणा को और ज्वलंत किया था।  मेरी स्मृति में आज भी सुरक्षित है वह कालखंड जब मैं बुआ के मुंह से धड़धड़ाते निकलते शब्दों को स्तब्ध हो सुनती रहती थी। हिंदी वर्णमाला से ही निर्मित वह शब्द पश्चिमांचल की धरती पर पूर्णरूपेण मेरी समझ को त्रास दे जाते थे , तो अर्थ समझने की तो बात ही नहीं उठती। 1 वर्ष तक के मनोयोग एवं सीखने की ललक ने मेरे शब्दकोश को पश्चिमी शब्दों से समृद्ध किया और अब मैं उनके शब्द अर्थ पूर्ण भावना के साथ ग्रहण करने में सक्षम हो पाई थी। परंतु अभी भी बुआ कभी किसी नए शब्द से मुझ पर प्रहार कर ही जाती थी ।

मेरे व्रत की बात उन्हें सुहाई नहीं । सावन के व्रत का क्या मतलब छोड़ो यह सब , खाओ गरम-गरम पूड़ियां। 

मेरे खोजी मन ने आज और कुछ जिज्ञासु होते पूछ दिया

बुआ सावन के सोमवार का तो बड़ा महत्व है, आप किन की पूजा करते हो ??

कौन इष्टदेव है आपके?? बुआ से इस उत्तर की आशा मुझे कदापि नहीं थी ।

लली 5 अगरबत्ती दिखावत हैं सुबह-सुबह खोली वाले बाबा को और दो भोला बाबा को।

बाबाओं के मोह से ग्रसित बुआ , गुणगान करने लगी उनके,  जिनसे मुझे उनके हितार्थ अत्यंत निराशा हुई ।

बुआ भोला बाबा तो ठीक है पर ये खोली वाले बाबा ??

आप आदमी की पूजा करते हो??

तभी मेरी सहकर्मी ने मुझे टोका , मैडम यह भोला बाबा कोई शिव जी नहीं यही पड़ोस के एक बाबा का नाम है , और तब एक और वज्र मेरे मस्तिष्क से टकरा निकल गया।

मैंने बुआ से कुछ कहना चाहा, पर तब तक बुआ तमतमा गई थीं। नथुने फुलने सिकुड़ने लगे थे, वृद्ध होती आखें झुर्रियों से बाहर निकल  आक्रमण को आतुर हो रही थीं और बुआ के तीखे शब्द बड़ी असहजता से बाहर निकल रहे थे ।

आदमी ने तो मुझे नहीं पूछा तो मैं आदमी की पूजा क्यों करूं ?? जान लो…  और बहुत कुछ परंतु उन शब्दों के वेग की तीव्रता और उष्णता से वह मेरी समझ की सीमा से बाहर निकलते जा रहे थे। मुझे यह तो समझ आ गया था कि बुआ को कुछ तो अनुचित लगा है , पर क्या .. फिर मेरे असमंजस को भांप मेरी समीप बैठी एक शुभेच्छु ने मुझसे कहा कि बुआ की दृष्टि में आदमी का अर्थ पति होता है , उन्हें ऐसा लगा कि मैंने यह कह दिया कि वह अपनी पति की पूजा करती हैं। ओह!! बुआ की स्थिति मैं समझ सकती थी।  गर्भावस्था में ही पति द्वारा त्यागी, ससुराल द्वारा प्रताड़ित कर निकाली गई वह महिला अपने अदम्य साहस के बल पर ही जीवन के संग्राम को निरंतर युद्ध की भांति लड़ रही थी।  किसी झांसी की रानी से तनिक भी कमतर नहीं जान पड़ती थी वह शौर्य एवम शक्ति में। अपने पति को उसके उत्तरदायित्व का संज्ञान कराने हेतु 5 वर्ष की अवस्था में ही अपने पुत्र का त्याग कर उसे पितृसत्ता में उसके अधिकार के रक्षण हेतु भेज देने वाली बुआ साधारण नहीं हो सकती थी । मुझे अनुमान था , उनके हृदय की भभकती अग्नि का।

मैं उठी बुआ !! बुआ !! सुनो बुआ शांत हो जाओ, सुनो आदमी का अर्थ होता है पुरुष, और इसी प्रकार महिला  हम औरतों को कहा जाता है ।

सामने बैठी एक महिला को संकेत करते हुए मैंने पूछा

अच्छा बताओ यह कौन हैं, आदमी या औरत ??

बुआ ने सहज हो उत्तर दिया अउरत है ! और का।

तब यह कौन है , मैंने एक पुरुष साथी की तरफ संकेत किया ??

बुआ सकुचा कर बोली भाई भतीजा औरु कौन ।

मैंने फिर पूछा बुआ यह आदमी हैं या औरत ??

बुआ उखड़ गई अरे!! आदमी थोड़े हैं यह, आदमी स्वामी, मालिक होते ,  घरवाला होते । बिटिया तू तो पागल है , हमें यह सब न बुद्धि पड़ा ।

बुआ का व्यवहार मुझे 50 वर्ष पूर्व के उनके जीवन की झलक दिखा रहा था, जो आज भी समाज का अंश बन समाज को ही भोग रहा था। आदमी, स्वामी,मालिक के विशेषण से सजी पुरुषवादी मानसिकता की शिकार अनेकों महिलाएं अपने जीवन को आज भी जीती नही हैं अपितु ढोती जाती हैं।

आठ या नौ वर्ष की अवस्था में जंफर व घुटन्ना पहने अल्हड़ सी गुड़िया का एक युवक से विवाह कर , दूर देश भेजने वाले ताऊ ताई अति शीघ्र , गोलोक में वास करते अपने भाई भाभी को श्रद्धांजलि देने चाहते थे। अनेकों अनिवार्य श्रृंगार संभालती , भोली भाली एक बालिका जो विवाह के अर्थ से पूर्णतया अपरिचित थी, कई दिवस सास के साथ रह कर ससुराल में, छोटे से बड़े तक के लिए अपने उत्तरदायित्व से परिचित होती है । कभी छोटे छोटे हाथो की हरी काली चूड़ियां ओखल पर बजती हैं , कभी चक्की पर, तो कभी चारे के कटनी के साथ साथ, परंतु सभी ध्वनियां उसकी कोमलता का ह्रास कर उसके भीतर की जीवनअग्नि को प्रत्येक क्षण मृत्यु की आहट सुनाती थी। झाड़ू कक्कड़, बासन, चूल्हा चौका निपटा घर के सभी सदस्यों की पसंद नापसंद से अवगत होने का प्रशिक्षण वर्षों तक गतिमान रहा था। अनेकों प्रयास पर भी वह ईश्वर की माया कभी किसी सराहना की पात्र तो नहीं बन सकी, अपितु हाथ पैर पर गर्म कोयले के दाग उसकी चूकों की गिनती अवश्य प्रदर्शित करते थे । अनोखा वीभत्स परीक्षाफल बदन पर लिए घूमती फिरती थी वह । तेज तेज चलाकर , सास इस प्रकार कहती जैसे किसी जानवर को आगे बढ़ा रही हो,और उधर नई पायल ने कितने ही लाल काले धब्बे बना रखे थे उसके पैरों पर जो पीड़ा दे उसकी चाल को रोकते रहते। पर हृदय पर पड़े  नासूरों के समक्ष इन छोटे मोटे घावों की क्या बिसात। उन्ही को सहलाते रहते ही सो जाया करती थी वह धरती मां के अंक में ।

परन्तु अभी तो प्रारंभ ही था आगे कुछ और भयानक काल उसकी प्रतीक्षा में था। 4 वर्ष के उपरांत 12 वर्ष की माया , माहवारी के प्रारंभ होते ही , पत्नीधर्म के बोझ तले बुरी तरह दब गई । सहसा जीवन की इस अनापेक्षित हलचल ने उसे हिला दिया था, किससे कहे,क्या पूछे, किसकी सहायता ले, कैसे कर्तव्यों की इस कठिन डगर पर चल पाए वह। उसका संपूर्ण जीवन अंधकारमय था ।12 वर्ष की इस अकेली, असहाय बालिका को पति या उसके परिवारजन एक चाकर से अधिक कुछ भी नहीं समझते थे।इस कहानी पर विराम देना ही पड़ेगा, अन्यथा कितने भी पृष्ठों में उसके आंसुओं की करुण पुकार को लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता ।

जीवन ऐसा ही क्यों होता है , मैडम ।भगवान जीवन देता ही क्यों है जब उसे मनुष्य को पशु के समान या पशु से भी बदतर जीने के लिए बाध्य होना पड़े ? आदमी वैसा हो  तो तो मृत्यु से क्या भय रह जाएगा मैडम । बहुधा उसकी बातें मुझे झिंझोड़ देती थीं। एक बार मायके वापस लौटी तो, हृदय में विद्रोही पुंज जल उठा, फिर कभी वापस ही नहीं गई । पति दूसरा विवाह कर सुखी संपन्न हो गया और बुआ ने पुत्र को भी त्याग कर वैधव्य धारण कर लिया था। अब उसके स्वर विद्रोही हो गए थे, क्रोध तत्काल प्रविष्ट कर जाता था व्यवहार में और विरोध तो स्वभाव में ही रच बस गया था। उसने अपने व्यक्तित्व से स्त्रीत्व का त्याग कर , पुरुषत्व को ग्रहण कर लिया था । स्त्री के स्वाभाविक गुणों में क्षमा, दान ,कोमलता, दया ,करुणा, धीरज आदि की श्रेष्ठता होती है, परंतु आज समाज में यही गुण द्वितीयक श्रेणी के गुण मान लिए गए हैं । इसका परिणाम यह निकल रहा है कि पुरुषों के नैसर्गिक गुण की श्रेष्ठता ही समाज द्वारा स्वीकार्य ली गई है । यह विचारधारा स्त्रियों को भी अपनी ओर आकर्षित कर रही है , उन्हें भी अपने आचरण में इन्हे सम्मिलित कर सामाजिक श्रेष्ठता को प्राप्त करने की इच्छा व्याकुल करने लगी है। गुणों का संतुलन इस व्यवस्था में बुरी तरह प्रभावित हो रहा है ।

आदिकाल में ही शिव ने अपने अर्धनारीश्वर रूप का दर्शन करा हम सभी को यह प्रेरणा दी थी कि प्रत्येक मनुष्य में स्त्रीत्व और पुरुषत्व का समावेश होता है, अतः प्रत्येक मनुज में स्त्री एवम पुरुष गुण का संतुलन करना ही देवत्व को प्राप्त करना है।

साहस से कितनी भी कठोर बन दिखाए वह अपनी शक्ति, परंतु ह्रदय के कोने में अभी भी अबोध ,भयभीत माया दुबकी हुई थी, जो कभी कभी उसे व्याकुल कर जाती थी। भाई की बेटी को गोद लिया था उसने,  उसे पढ़ाया लिखाया , धूमधाम से विवाह भी किया । किसीके प्रयास से  गांव की आंगनबाड़ी में सहायिका बन गई थी। छोटे बच्चों के पालन पोषण में मगन रहती,गांव भर के दुख सुख जानती रहती। बस यूं ही  बिना किसी निश्चित उद्देश्य उम्र के पर्वत चढ़ी जा रही थी।

वैसे बुआ के हाथ के बाजरे की रोटी और आलू की कचौड़ी लाजवाब होती है सभी कचौरियों का आनंद ले  रहे थे, तो मैं भी उस अभूतपूर्व स्वाद का स्मरण कर रही थी।

लेखिका

ऋचा राय ( कवयित्री, साहित्यकार )

August 2021